इक थी नन्हीं सी चिरैया ,
भोली सी नासमझ चिरैया ।
घरौंदे में सदा ही रहती ,
ना किसी से कुछ भीं कहती ।
अनजान थी दुनिया के रंगो से ,
जीने के सारे ढंगो से।
इक दिन आसमाँ से कुछ गिरता आया ,
इक बाज़ जो उसने जख्मी पाया ।
मरते को उसने दाना खिलाया ,
जख्म पे उसके मलहम लगाया ।
रोज वो ढूँढ के दाना लाती ,
देती बाज़ को फिर खुद खाती ।
इक दिन बाज़ को स्वस्थय पाया,
उस दिन चिरैया ने खूब जश्न मनाया ।
अचानक , बाज़ ने मारा पंजा ,
मारी चिरैया मांस था खाया ।
मरते हुए भीं समझ ना आई ,
दुनिया को वो समझ ना पाई
" दुनिया के रंगो की
पहचान ना आई "
दूर कहीं थी इक नन्हीं चिरैया ,
भोली सी नासमझ चिरैया ।
संजीव कुक्कड़
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