कब बीता जिंदगी ऐ सफर ,
कुछ पता ना चला ।
कब हुई खाक ऐ रस्म ,
कुछ पता ना चला ।
बीतते पलों का अलग ही साज था ,
गमों का भी तारीफ ऐे अंदाज था।
ख्वाहिशें कुछ ऐसे हुई दफ़न
कुछ पता ना चला ।
कब गिर पड़े , फड़फड़ाते हुए पंखों से
कब बहे सपने , आंखों के अश्कों से ,
कुछ पता ना चला ।
खींच कर बनायी ,
चेहरे पर जो मुस्कान थी
अंदर से फिर भी कहीं ,
जालिम थकान थी ।
कब गिरी गाज ऐ बिजली ,
कब गई ठहर ये जिंदगी ,
कुछ पता ना चला ।
बदलते मौसम में , आती बहारों का
जिंदगी के बसंत में, खिलते गुलज़ारो का
कुछ पता ना चला ।
जब बीता जिंदगी का सफर ,
होने वाले थे खाक ऐ दफ़न
कम होती धड़कते दिल की आवाजों का ,
कुछ पता ना चला ।
कब बीता जिंदगी ऐ सफर ,
कुछ पता ना चला ।
कब हुई खाक ऐ रस्म ,
कुछ पता ना चला ,
कुछ पता ना चला ।
संजीव कुक्कड़

2 टिप्पणियाँ
Nice lines 👌👍
जवाब देंहटाएंThx Soooo much 😊
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कुक्कड़ वर्ल्डस