ना फलक पे सितारे देखे ,
ना जमीन पे नज़ारे देखे ।
देखे तो बस अंधेरे देखे
अंधेरों में काले साये देखे ।
जख्मी होकर भी चला जा रहा हूँ ,
पता नहीं कहा जा रहा हूँ ।
मालूम नहीं रस्ता हैं किधर ,
फिर भी बस चला जा रहा हूँ ।
थके-थके से पांवो से कभी बैठता ,
कभी उठता , नासूर सह कर भी
बस चला जा रहा हूँ ।
आंधी-तूफान में आंखे कर बंद
उसी में बस बहा जा रहा हूँ ।
अंदर से टूट कर भी
ना आंसू बहा रहा हूँ ।
कभी कड़कती बिजली
कभीं असह पीड़ा
बस झेलता जा रहा हूं ।
असहनीय ताप है फिर भी
चिर - निद्रा की आस में
मुस्करा रहा हूँ ।
चला जा रहा हूं ,
बस , चला जा रहा हूं ।
संजीव कुक्कड़
0 टिप्पणियाँ
हम अपनी तरफ से अच्छें लेखन का प्रयास करते हैं , आप अपनें कीमती सुझाव हमें कमेंट में जरूर बतायें , तांकि हमारा लेखन कार्य और भी निखर सकें । हम अपने ब्लाग में आपको नयी रेसिपी , हिन्दी निबंध , नयी कविताएँ और धर्म के बारे में लेखन के साथ अन्य जानकारियों पर भी लेखन कार्य बढ़ा रहे हैं । आपका सहयोग हमारे लिए बहुत अनिवार्य हैं जिससे हम आगे का सफ़र तय कर पायेगें ।
धन्यावाद
कुक्कड़ वर्ल्डस