चला जा रहा हूँ !

ना फलक पे सितारे देखे ,
ना जमीन पे नज़ारे देखे ।
देखे तो बस अंधेरे देखे 
अंधेरों में काले साये देखे ।
जख्मी होकर भी चला जा रहा हूँ ,
पता नहीं कहा जा रहा हूँ ।
मालूम नहीं रस्ता हैं किधर ,
फिर भी बस चला जा रहा हूँ ।
थके-थके से पांवो से कभी बैठता ,
कभी उठता , नासूर सह कर भी
बस चला जा रहा हूँ ।
आंधी-तूफान में आंखे कर बंद
उसी में बस बहा जा रहा हूँ ।
अंदर से टूट कर भी
ना आंसू बहा रहा हूँ ।
कभी कड़कती बिजली
कभीं असह पीड़ा
बस झेलता जा रहा हूं ।
असहनीय ताप है फिर भी
चिर - निद्रा की आस में
मुस्करा रहा हूँ ।
चला जा रहा हूं ,
बस , चला जा रहा हूं ।
संजीव कुक्कड़


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