स्याह रात


ना जीवन की कहीं आस है
ना चिंगारी कहीं पास है ,
उफ ! कितनी स्याह रात है ।
ना सुर कहीं , ना आवाज़ हैं , 
हर तरफ अंधेरे का ही साज है ।
उफ ! कितनी स्याह रात है !
ना चांद की है चाँदनी ,
ना सितारों की शहनाज़ है ।
हर तरफ हैं सन्‍नाटा ,
अजब सी कसमसाहट है ।
उफ ! कितनी स्याह रात है !
उठ नहीं रहे कदम चलने को
राह में कांटे बेशुमार हैं ।
लौ कोई ना दिख रहीं ,
ना दिख रहा उजियारा हैं ।
कुदरत नें भी जैसे इस रात को,
अपने हाथो से संवारा है ।
धीमी पड़ती धड़कनो को,
बड़ी मुश्किल से संभाला है।
ना जीवन की कहीं आस है
ना ज्वाला ही कहीं पास है ,
उफ ! कितनी स्याह रात है ।
उफ ! कितनी स्याह रात है ।
संजीव कुक्कड़ 











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