बचपन से बुढ़ापा

 


नमस्कार दोस्तो ,

      आज सुबह तीन बजे दिमाग में खुद ही पंक्तिया बनती रही तो मैंने उन्हें शब्दों में उतार दिया ,अच्छी लगे तो बताना । कवि नहीं हूँ पर लिखने का मन किया तो लिख दिया । इंसान को दुनिया के पन्नो पर कुछ यादें तो छोड़नी ही चाहिए । खैर शुरू करते हैं . . .

बचपन में जब सोकर उठता , नयी सवेर पाता था

रोज़ कुछ खोज़ा करता , अक्सर सपने सजाता था।

सत्रह वर्ष में जब मैं आया , नया उत्साह सा पाता था ।

मित्रों से बाते मैं करता , चुप ना रह पाता था ।

एक दिन जब घर मैं आया , पिता को न खोज पाता था ,

इधर - उधर बहुत देखा , पर ढूँढे से भी ना पाता था ।

हाथ उठ गया सिर पर से , मन तो बड़ा घबराता था।

तपती दोपहर में , तपती सड़क पे पिता गिर पड़े

लोगों से सुनता जाता था , पर कर ना मैं कुछ पाता था ।

कितना तड़पे होगे , सोच कर ही तड़पा जाता था ,

सुबह -सवेरे रोज मंदिर जाते ,भोले बाबा को जल चढ़ाते , 

तो भी तपती धरा पर , खुद  जल ना  पाना  था ?

ऐसा क्यूं ? बाबा से जवाब ना पाता था ,

पर चुप बैठा गुमसुम सा , कहीं कोई सहारा ना पाता था

विचारों में गुम होकर मै , सदा सो जाता था ।

एक दिन जब सोकर जागा , खुद को हैरान पाता था ,

सफेद हो चुके बाल , खुद को चालीस के पार पाता था ,

ना कोई उत्साह , ना शरीर में जान पाता था ।

कहाँ गया वक्त वो सारा , अंतराल समझ ना पाता था ,

बचपन से सीधा बुढ़ापा , समझ में ना आता था

सोने की कोशिश करता , पर सो ना पाता था ।

बचपन से बुढ़ापा , समझ ना पाता था

.... समझ ना पाता था , समझ ना पाता था ।

                                     😔 संजीव कुक्कड़



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