इक थी नन्हीं सी चिरैया , भोली सी नासमझ चिरैया । घरौंदे में सदा ही रहती , ना किसी से कुछ भीं कहती । अनजान थी दुनिया के रंगो से , जीने के सारे ढंगो से। इक दिन आसमाँ से कुछ गिरता आया , इक बाज़ जो उसने जख्मी पाया । मरते को उसने दाना खिलाया , जख्म पे उसके मलहम लगाया । रोज वो ढूँढ…
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