तहरीरें


कुछ तहरीरें मिटा नहीं करती ,

जिंदगी भर रुलाती हैं ।

महफिल हो कितनी भी रौशन ,

स्याह बन कर सताती हैं ।

भीड़ हो चाहे लाख सही ,

फिर भी अकेला कर जाती हैं ।

सूरज़ की रौशनी लगती फीकी सी ,

चाँदनी भीं डराती हैं ।

कुछ तहरीरें मिटा नहीं करती ,

जिंदगी भर रुलाती हैं ।

फूलों में भी चुभन का ,

अहसास कराती हैं ।

सांसे तकलीफ़ हैं देती ,

जिंदगी जख्म बन जाती हैं ।

टूटती सांसो के संग ही ,

आखिर यह भी टूट जाती हैं ।

कुछ तहरीरें मिटा नहीं करती ,

जिंदगी भर रुलाती हैं ।

संजीव कुक्कड़


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