दलदल


सांसे घुटती रही , कर्जा बढ़ता गया

हर पल दलदल में वो धंसता गया ।

समय चाल चलता गया ,

वो भी तेज़ी से ढलता गया ।

कभीं रातों में उठता ,

कभीं खुद पे ही हंसता गया ।

रस्ता खत्म था आगे ,

फिर भी पागल चलता गया ।

हर पल दलदल में वो धंसता गया ।

चक्की चलती रहीं ,

और वो पीसता गया ।

टहलते कदमों में हमेशा बेचैनी सी ,

उफान सा सीने में अटकता गया ।

हर आहट से वो ड़रता गया ,

हर पल दलदल में वो धंसता गया ।

ना कोई अपना था यहाँ ,

बेगानी दुनिया में वो सफ़र करता गया ।

सड़क पर ठोकर खाकर ,

पल दो पल आह निकली

फिर कोई अजनबी कफन से ,

उसका चेहरा ढ़कता गया ।

हर पल दलदल में वो धंसता गया ,

हर पल दलदल में वो धंसता गया ।

संजीव कुक्कड़


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कुक्कड़ वर्ल्डस