दीपक



ना चल ऐ हवा ,
दीपक में अभीं तेल बाकी
देखने दे तकदीर ऐ तमाशा ,
उसका हैं खेल बाकी ।
मिट्टी को जरा ख़ाक होने दे ,
आखिरी ज़रा भी राख होने दें ।
औरो को दे उजाला
खुद को यह जलाता हैं
उसी का सज़ा तो यह पाता हैं
इसका मज़ा तो जरा लेने दें ।
दम लगा फड़केगा
खुद को बचाने को यह तड़पेगा ।
बचाने कोई भी ना आयेगा
खुद ही टिमटिमा यह बुझ जायेगा ।
अंधेरों का साथ दगा दे गया
उनकों दे रौशनी खुद
अंधकारों में कही खो गया ।
तेरा हल्का झोंका भी ,
इसे तड़पा देगा ।
वक्त से पहले ही ,
इसे बुझा देगा ।
ना चल ऐ हवा ,
दीपक में अभीं तेल बाकी
देखने दे तकदीर ऐ तमाशा ,
उसका हैं खेल बाकी 
उसका हैं खेल बाकी ।
संजीव कुक्कड़

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