साज़ गमों के बजते रहें ,
धुन दर्द की आती रही ।
कसक दिल से उभरती रहीं ,
टीस सी कुलबुलाती रही ।
पिरों के शब्दों को मैनें ,
पंक्तियों में लिख डाला ।
शायद इनसें बुझ सकें ,
दर्द भरी यह ज्वाला ।
फूल समझ दुनिया को ,
काँटों की मशक भरतें रहे ।
हर राग पे हंसते रहें ,
साज़ गमों के बजते रहें ।
ना समझो पागल उनकों ,
जो दर्द को ब्याँ करतें हैं
औरों से कहाँ वो तो ,
खुद को खुद से ही जुदा करते हैं ।
जिन्दगानी हैं रही कितनी
लम्हों का पता नहीं ,
दूर - दूर तक रेत हैं
सूखे - सूखे से खेत हैं ,
ना बारिश की कोई आस हैं
उखड़ी हुई हर सांस हैं ।
साया ही बस गवाह हैं ,
दर्दे गीत ही दवा हैं ।
खुद ही खाली रह गयें ,
औरों का दामन भरते रहें ।
साज़ गमों के बजते रहें ,
साज़ गमों के बजते रहें ।
संजीव कुक्कड़

2 टिप्पणियाँ
Nice 👍
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